अब तूही बता तुझे क्या कहूं बीमारी कहूं कि बहार कहूं पीड़ा कहूं कि त्यौहार कहूं संतुलन कहूं कि संहार कहूं अब तूही बता तुझे क्या कहूं मानव जो उदंड था पाप का प्रचंड था सामर्थ का घमंड था मानवता को कर रहा खंड खंड था नदियां सारी त्रस्त थी सड़के सारी व्यस्त थी जंगलों में आग थी हवाओं में राख थी कोलाहल का स्वर था खतरे में जीवो का घर था चांद पर पहरे थे वसुधा के दर्द बड़े गहरे थे फिर अचानक तू आई मृत्यु का खौफ लाई संसार को डराई विज्ञान भी घबराई लोग यूं मरने लगे खुद को घरों में भरने लगे इच्छाओं को सीमित करने लगे प्रकृति से डरने लगे अब लोग सारे बंद हैं नदिया स्वच्छंद हैं हवाओं में सुगंध है वनों में आनंद है जीव सारे मस्त हैं वातावरण भी स्वस्थ हैं पक्षी स्वरों में गा रहे तितलियां भी इतरा रही ... ... ... ... ... ... अब तूही बता तुझे क्या कहूं

Yours Sincerely,

Ashok M Suthar.